तीनों स्तंभों को बचाने वाले चौथे स्तंभ को बचाने वाला कोई नहीं!

तीनों स्तंभों को बचाने वाले चौथे स्तंभ को बचाने वाला कोई नहीं!

तीनों स्तंभों को बचाने वाले चौथे स्तंभ को बचाने वाला कोई नहीं!

 -तीनों स्तंभ, चौथे स्तंभ का इस्तेमाल कर रहे, चौथा स्तंभ मानते भी हैं, रात-दिन सेवा भी लेते, लेकिन प्रेस को चौथा स्तंभ घोषित नहीं करते

-तीनों स्तंभों के बीच में पिस रहा चौथा स्तंभ, वर्तमान सरकार जितना प्रेस को परेशान कर सकती, कर रही

-यही लोग जब पद पर नहीं रहते तो छोटे अखबारों में विज्ञप्ति लेकर घूमते, प्रेस को सीख भी देतें

-गांव से निकलने वाला साप्ताहिक और बहादुरशाह जफर मार्ग से निकलने वाले दैनिक अखबारें सहयोग ना करें तोना जाने कितने नेता भूखों मर जाएं

-जिस देश में बिना एलएलबी के सीजेआई बना जा सकता हैं, जामा मस्जिद से देश के प्रेसीडेंट की घोषणा हो सकती, उस देश में कुछ भी हो सकता

-आजकल विधायिका और न्याय पालिका में वर्चस्व को लेकर दंगल हो रहा, मत्स्य न्याय चल रहा, हर बड़ी मछली छोटी मछली को निगल जा रही

-निरक्षर से लेकर पढ़े लिखे कानून बना रहे, देश की सबसे अधिक प्रतिष्ठित आईएएस की डिग्री लिए विधायिका, न्याय पालिका की कठपुतली बना

-आजकल कार्यपालिका तो कम न्याय पालिका और विधायिका परस्पर घूंसा मार रहें

बस्ती। तीनों स्तंभों को बचाने वाले चौथे स्तंभ को कोई नहीं बचा रहा है, बचाने को कौन कहें, जेल भेजवा रहे हैं, नौकरी से निकलवा रहे, अखबारों की प्रतियां जला रहे है। आज चौथा स्तंभ तीनों स्तंभों के बीच पिसकर रह गया है। वर्तमान सरकार जितना चौथा स्तंभ को परेशान और उत्पीड़न कर सकती है, कर रही है। यही लोग जब पद पर नहीं रहते तब इनका बचाव और इनके काम चौथा स्तंभ ही करता। यह छोटे अखबारों में विज्ञप्ति लेकर घूमते रहते हैं, और प्रेस को सीख भी देते है। गांव से निकलने वाले साप्ताहिक और बहादुरशाह जफर मार्ग से निकलने वाले दैनिक अखबारें अगर सहयोग ना करें तो ना जाने कितने नेताओं की पहचान ही समाप्त हो जाए, इनकी दुकानें बंद हो जाए, भूखों मरने की नौबत आ जाए। सवाल यह उठ रहा है, कि जब चौथा स्तंभ तीनों स्तंभ की मदद रात दिन कर रहा है, तो क्यों नहीं संसद में एक राय होकर प्रेस को चौथा स्तंभ घोषित करवाने की पहल करतेे? आखिर कानून बनाने वालों को चौथे स्तंभ से इतनी नाराजगी और दुष्मनी क्यों? अगर है, तो क्यों यह लोग चौथें स्तंभ से मदद मांगतें और लेते? और अगर मदद लेते हैं, तो क्यों नहीं चौथे स्तंभ को चौथा स्तंभ बनाने का कानून लाते, जिससे चौथा स्तंभ स्वंयभू के स्थान पर कानूनी जामें आ सके। प्रेस ही है, जो सबको बचा रहा है, लेकिन प्रेस को बचाने वाला कोई नहीं।  

कहने को तो देश में लोकतंत्र के चार स्तंभ है। देश ने बाबा साहब के संविधान को तो स्वीकार कर लिया, लेकिन आज देश में मत्स्य न्याय चल रहा हैं, इसका मतलब हर बड़ी मछली छोटी मछली को सीधे निगल जा रही। विधायिका और न्याय पालिका में दंगल इस बात का हो रहा है, कि आखिर वर्चस्व किसका रहेगा? निरक्षर से लेकर पढ़े लिखे कानून बना रहे, देश की सबसे अधिक प्रतिष्ठित आईएएस की डिग्री लिए विधायिका, न्याय पालिका की कठपुतली बनी हुई है। न्याय पालिका अपने आपको देश का सफल स्वामित्व का ढंका बजा रहा। भारत दुनिया का पहला ऐसा देश होगा, जहां पर बिना एलएलबी डिग्री के 1967 में देश के 10वें कैलाशनाथ बांगचू को सीजेए बनाया गया। सीजेए बनने से पहले यह देश के वरिष्ठ आईएएस अधिकारी रहे। यह वही महान देश हैं, जहां पर दिल्ली के जामा मस्जिद से 1967 में डा. जाकिर हुसैन को देश का प्रेसीडेंट घोषित किया गया। आजकल कार्यपालिका तो कम न्याय पालिका और विधायिका परस्पर घूंसा मार रहें। यह वह देश हैं, जहां पर थका हारा कलक्टर, सांसद और विधायक अपने उपर हो रहें अन्याय को तथाकथित पत्रकारों के साथ साझा कर रहें हैं। लोकसभा या फिर विधानसभा का सदस्य होना इस बात की गांरटी नहीं कि कोई सर्वशक्तिमान हो गया। वर्तमान में अच्छे लोग एमपी और एमएलए बनना नहीं चाहते, क्यों कि वह चाटुकारिता के खिलाफ रहते है। देश वासियों के लिए यह कितना दुर्भाग्य हैं, कि एक न्यायाधीश के घर से करोड़ों मिलता है, फिर उसके खिलाफ एफआईआर तक दर्ज नहीं होता। आखिर इतने बड़े अपराध का संरक्षक क्यों सर्वोच्च न्यायालय बन रहा? और बने क्यों ना? जब अधिकांश हाईकोर्ट और सुप्रीम के जजों ने अपने नाती, पोता, दामाद, बेटा और बेटी को भी सीजेए बनाने का सपना जो पाल रखा है। संवैधानिक हिसाब से संसद सर्वोच्च है। देश के प्रेसीडेटं मंत्रि परिषद के प्रति उत्तरदाई होने के साथ वह तीनों सेना का कंमाडर भी होता, पर संविधान की गलत आख्या होने से निरीह की स्थित बन गई है। अब सबसे बड़ा सवाल यह उठ रहा है, कि जब सारे लोग लड़ रहे हैं, और उसमें चौथा स्तंभ सभी का साथ दे रहा है, तो क्यों नहीं चौथे स्तंभ का सब लोग मिलकर साथ देतें? अगर इन लोगों की बातों को चौथा स्तंभ समीक्षा करके प्रिंट मीडिया, इलेक्टानिक्स और सोशल मीडिया ना परासे तो यह अपनी बातें जनता और सरकार तक पहुंचा ही नहीं पाएगें। सच पूछिए तो इसी को चौथा स्तंभ कहते हैं, और यही है, चौथे स्तंभ की खूबी और खूबसूरती। आखिर चौथा स्तंभ भी कोई चीज हैं, कि नहीं? प्रेस ही है, जो तीनों स्तंभों का साथ दे रहा है। चाहें प्रधानमंत्री की हो या फिर चाहें मुख्यमंत्री की, चाहें सर्वोच्च नौकरशाहों की, तीनों का साथ प्रेस ही दे रहा है। ऐसे में क्या वाकई में तीनों के आंख का पानी मर गया है? प्रेस अभाव का स्वभाव बनाकर काम कर रहा है, और तीनों स्तंभ एक दूसरे के चीरफाड़ करने में लगे हुए है। इस चीरफाड़ में सबसे अधिक दुर्गति न्यायपालिका के कालेजिएम सिस्टम की हो रही। देखा जाए तो उन्हीं प्रेस वालों को सरकारी नियुक्ति मिल रही है, जो पार्टी और पालिटिक्स में इन्वाल्व रहते है। सवाल उठ रहा है, कि आखिर प्रेस कब तक एकतरफा साथ देगा।

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