पत्रकार साहब यह बताइए कि टिकाऊ हो या बिकाऊ!
- Posted By: Tejyug News LIVE
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- Updated: 22 April, 2025 22:00
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पत्रकार साहब यह बताइए कि टिकाऊ हो या बिकाऊ!
-पैसा नहीं मिला, इस लिए नहीं छापा, पैसा मिल गया इस लिए छापा, यह है, पत्रकारों की समाज में छवि
-अगर कोई पत्रकार किसी खास के खिलाफ खबर लिखता है, तो अक्सर कहा जाता है, कि पैसा नहीं मिला होगा, इस लिए छाप दिया
-अगर वहीं पर कोई पत्रकार किसी भ्रष्टाचारी के खिलाफ छापता है, तो कहा जाता है, कि विरोधी से पैसा मिल गया होगा इस लिए छाप दिया
-कोई पत्रकार माने या न माने कोई बात नहीं, लेकिन पत्रकारों की जो समाज में छवि है, वह इसी तरह की बनी हुई
-खास बात यह है, कि यह वही लोग कह रहे हैं, जो समाज के ठेकेदार हैं, और सबसे अधिक गलत/सही यही लोग करते
-इस छवि से कैसे बाहर निकलना हैं, यह सभी पत्रकारों के लिए सोचने और चर्चा का विषय होना चाहिए
-जब गांव वाले पत्रकारों से यह सवाल करें, कि टिकाउ हो या बिकाऊ, तो समझ लेना चाहिए कि छवि खराब
बस्ती। अगर गांव वाले किसी पत्रकार से यह पूछे कि टिकाउ हो या बिकाऊ, तब गांव में पड़ताल के लिए जाने देगें, तो हम पत्रकार साथियों को समझ लेना चाहिए कि समाज में उनके बारे में क्या राय रखते है? दो साल पहले पत्रकार की एक टीम कुदरहा ब्लॉक के ग्राम पंचायत छरदही का पड़ताल करने गई। टीम जैसे ही गांव में घुसने का प्रयास करती है, गांव वाले रोक लेते हैं, कारण पूछने पर सवाल करते हैं, कि ‘टिकाउ पत्रकार हो या बिकाउ पत्रकार’ सुनकर टीम को हैरानी तो बहुत हुई, लेकिन जोर देने पर गांव वालों ने बताया कि इस गांव में आज तक जितने भी पत्रकार डायरी और चोंगा लेकर आए, गांव का पड़ताल किया, गांव में विकास के नाम पर हुए भ्रष्टाचार को भी साथ में लेकर गए, लेंकिन मुख्यालय जाकर सब बिक गए। बड़ी मुस्किल और भरोसा दिलाने के बाद गांव वाले अंदर जाने दिए। दूसरे दिन जब खबर प्रकाशित हुई तो गांव वाले यकीन ही नहीं कर रहे थे, कि कोई पत्रकार गांव के भ्रष्टाचार की खबर भी छाप सकता है। जिसका नतीजा यह हुआ कि अगर आज कोई पत्रकार उस गांव में चला जाता है, तो उससे यह नहीं पूछा जाता कि टिकाउ हो या बिकाऊ। उसके बाद इस गांव में जमकर भ्रष्टाचार का विरोध गांव वाले करने लगे, खबरें भी प्रकाषित होती रही, गांव वालों का विष्वास पत्रकारों पर बढ़ने लगा। होने लगा। उसके बाद इस गांव के कई लोग पत्रकार बन गए। टीम गरमी में लगभग तीन घंटा तक गांव में रही, नकली प्रधान रमेष चौधरी के घर भी टीम गई, लेकिन किसी ने टीम को एक गिलास पानी तक नहीं पूछा। ऐसा रहा, पत्रकारों के प्रति गांव वालों का गुस्सा। टीम जब वापस गांव से निकली तो छोपड़ी में रहने वाले एक व्यक्ति ने ईषारे से बुलाया और पूछा कि लगता है, कि गांव वालों ने आप लोगों को पानी नहीं पिलाया, फिर उस व्यक्ति ने टूटी चारपाई पर बैठा कर गुड़ और पानी दोनों पिलाया। जिसका नतीजा यह हुआ कि अगर आज कोई पत्रकार उस गांव में चला जाता है, तो उससे यह नहीं पूछा जाता कि टिकाउ हो या बिकाऊ। उसके बाद इस गांव में जमकर भ्रष्टाचार का विरोध गांव वाले करने लगे, खबरें भी प्रकाषित होती रही, गांव वालों का विष्वास पत्रकारों पर बढ़ने लगा। उसके बाद इस गांव के कई लोग पत्रकार बन गए। इस घटना को बताने के पीछे यह बताना कि समाज हम लोगों के बारे में क्या राय रख रहा? अगर हम लोगों ने गांव वालों के बीच ऐसी छवि बनाई है, तो गलती किसकी?
समाज भले ही चौथे स्तंभ को देष का प्रहरी माने और कहे, लेकिन सच तो यह है, कि सबका साथ देने वाले चौथे स्तंभ का कोई पुरसाहाल नहीं है। अच्छा करने के बाद भी समाज इन्हें अच्छे की नजर से नहीं देखता। यह बात अब तो पत्रकारों के लिए आम हो गई हैं, कि पैसा नहीं मिला होगा तो छाप दिया, और पैसा मिल गया होगा तो छाप दिया। कोई पत्रकार माने या न माने कोई बात नहीं, लेकिन पत्रकारों की जो समाज में छवि है, वह इसी तरह की बनी हुई है। इस छवि से कैसे पत्रकारों को बाहर निकलना होगा, यह सभी पत्रकारों के लिए सोचने और चर्चा का विषय होना चाहिए। खासबात यह है, कि यह वही लोग कह रहे हैं, जो समाज के ठेकेदार हैं, और सबसे अधिक गलत/सही यही लोग करते है। इनके आंकलन को पूरी तरह झूठा भी नहीं कहा जा सकता। इन लोगों की नजर में जिले का शायद ही कोई ऐसा पत्रकार होगा, जिसकी छवि अच्छी हो। जिस तरह गांव, गढ़ी और षहरों में पत्रकारों की जो स्थित हैं, उसी के चलते उनकी छवि बनी हुई। यह छवि इस लिए बनी क्यों कि अधिकांश पत्रकारों ने ईमानदारी से काम करना छोड़ दिया, जिसके चलते आज कोई पत्रकार पर आंख बंद करके भरोसा करने को तैयार नहीं है। ऐसेे लोगों के मन में हमेषा यह डर बना रहता हैं, कि जो दस्तावेज वह दे रहें हैं, वह सुरक्षित भी रहेगा या नहीं? कहीं उसके दस्तावेज का सौदा न पत्रकार विरोधी से कर लें। कहा भी जाता है, कि जिस पत्रकार ने सौदेबाजी किया, वह पत्रकार हमेषा के लिए उस व्यक्ति का गुनहगार बन गया, और वह एक नहीं हजार लोगों से यह सवाल करेगा कि क्या पत्रकार ऐसे भी होते है। जिसने विष्वास करके दस्तावेज उपलब्ध कराया था। अब जरा उस व्यक्ति की मनोदशा पर नजर डालिए। अगर उस व्यक्ति को दूसरे दिन पढ़ने को नहीं मिलेगा और उसे यह पता चलेगा कि उसकी सूचना को तो बेच दिया गया, ऐसे में उस व्यक्ति पर क्या गुजरेगी यह आसानी से सोचा और समझा जा सकता है। न सिर्फ सूचना को बेचा गया, बल्कि सूचना देने वाले का नाम भी बता दिया गया।
किसी लालची कथित पत्रकार को भले ही भोजन मिल गया हो, लेकिन उस व्यक्ति का कितना बड़ा नुकसान हो सकता है, इसका अंदाजा लालची किस्म के पत्रकार नहीं लगा सकते, किसी की जान तक जा सकती? कहते भी है, कि एक पत्रकार की सबसे बड़ी पूंजी उसका कमाया हुआ विष्वास और भरोसा होता है। जिस भी पत्रकार ने भरोसा तोड़ा, उसे समाज ने विष्वासघाती और चोर कहा। आज जो खबरें छन के नहीं आ पा रही है, और खबरों के लिए जो पत्रकारों को ईधर-उधर भाग दौड़ करना पड़ रहा है, उसका सबसे बड़ा कारण विष्वास का संकट होना। आज कोई भी व्यक्ति किसी भी पत्रकार पर आसानी से विष्वास करने को तैयार नहीं, उसे विष्वास दिलाना पड़ता है, कि मैं उन पत्रकारों में नहीं, जो विष्वास का खून और सौदा करते।
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