पोखरनी का प्रधान बनने को दलितों को कितने जन्म लेने पड़ेगें?

पोखरनी का प्रधान बनने को दलितों को कितने जन्म लेने पड़ेगें?

पोखरनी का प्रधान बनने को दलितों को कितने जन्म लेने पड़ेगें?

-क्या पोखरनी कभी राजा साहब के चगंुल से आजाद हो पाएगा? आखिर क्यों नहीं इस गांव के दलितों को प्रधान बनने का मौका दिया गया, क्यों उनके आरक्षण के हक को छीना गया, क्या इन्हें प्रधान बनने का अधिकार नहीं

-पिछले 45 साल से राजा साहब और उनका परिवार या फिर उनका आदमी ही प्रधान बनता आ रहा, दलित सोचता रह जाता कि इस बार मौका मिलेगा, लेकिन कुछ लोग साम्राज्य कायम करने के लिए एससी का आरक्षण ही नहीं होने देते

-आजादी के बाद से लेकर आज तक दलितों को प्रधान बनने का मौका नहीं मिला, ओबीसी महिला और पुरुष प्रधान बन गए, लेकिन दलित नहीं बना

-दलितों के साथ इससे बड़ा अन्याय और हो ही नही सकता, अनेक दलित सोचते हैं, कि क्या वह जन्म में प्रधान बन पाएगें?

बस्ती। विकास खंड बहादुरपुर का ग्राम पंचायत पोखरनी देश का पहला ऐसा ग्राम पंचायत होगा, जहां पर आजादी के बाद से आज तक दलितों को प्रधान बनने का मौका नहीं मिला। सभी वर्गो के लोग प्रधान बन चुके, लेकिन दलित वर्ग का व्यक्ति प्रधान बनने का सपना पिछले 75 सालों से देख रहा है। सवाल उठ रहा है, कि इस गांव के दलितों को क्या इस जन्म में प्रधान बनने का मौका मिलेगा? प्रधान बनने की आस लिए अनेक दलित स्वर्गवासी हो गए। यह भी सवाल उठ रहा हैं, कि क्या इस ग्राम पंचायत की प्रधानी पर सिर्फ राजा साहब और उनके परिवार एवं उनके आदमियों का ही अधिकार है? क्या अन्य का नहीं? जब भी पंचायत चुनाव आता है, तो यही हल्ला होता है, कि इस बार दलित सीट होगा, मतदाता सूची के अंतिम प्रकाशन के पहले तक हल्ला होता है, कि इस बार किसी एससी को प्रधान बनने का मौका मिलेगा, लेकिन जैसे ही आरक्षण की सूची जारी होती हैं, एससी नदारत रहते है। सरकार का आरक्षण का चक्रानुक्रम पोखरनी के मामले में धरा का धरा रह जाता है। डीपीआरओ कार्यालय पर आरक्षण के मामले में छेड़छाड़ का आरोप लगता रहा है। जिस ग्राम पंचायत में दलितों की आबादी के बराबर हो, अगर वह गांव ओबीसी के लिए आरक्षित हो सकता है, तो क्यों कि दलित हो सकता? चुनाव कार्यालय के लोग कहते हैं, कि सारा खेल डीपीआरओ और डीएसटीओ कार्यालय में होता है। बीएलओ और तहसील वालों की भी भूमिका संदिग्ध रहती है। कहने का मतलब अगर किसी गांव का कोई व्यक्ति सबल हैं, तो वह जैसा चाहेगा वैसा आरक्षण करवा लेगा। क्यों कि डीपीआरओ कार्यालय में आरक्षण बड़े पैमाने पर बिकता है। बस खरीदार चाहिए। इस गांव के लगभग एक हजार दलित मतदाता अपने अधिकार के लिए आजादी के बाद से ही तरस रहे हैं, और इन्हें तब तक अधिकार नहीं मिलेगा जबतक राजा साहब नहीं चाहेंगें। ऐसा गांव के अधिकांश लोगों का कहना और मानना है। इस बार राजा साहब को भी अपना दिल बड़ा रखना होगा, और उन्हें स्वंय आगे आकर गांव को एससी सीट घोषित करवाना होगा। भले ही राजपाट चला गया हो, लेकिन पोखरनी को देखकर नहीं लगता कि वहां पर षासन-प्रशासन का राज है। अगर होता तो अब तक न जाने कितने एससी प्रधान हो गए होते है। अब तो इस गांव के दलितों ने प्रधान का चुनाव लड़ने के बारे में सोचना ही बंद कर दिया, कहते हैं, कि जब तक राजा साहब नहीं चाहेंगे वह प्रधान नहीं बन पाएगें। यह ठीक हैं, कि राजा साहब का इतना दबदबा है, कि जिसे वह चाहेगें वहीं प्रधान बनेगा, लेकिन सवाल उठ रहा है, कि आज तक राजा साहब ने दलितों को क्यों नहीं प्रधान बनाया? वह भी तो राजा साहब का आदमी ही कहलाता, जैसा चाहते वैसा प्रधान करता। जिस तरह प्रधान प्रेम नाथ निषाद राजा साहब के सबसे खास कहे और समझे जाते है। कहा भी जाता है, कि बड़े लोगों का काम अधिकार दिलाना होता है, न कि छीनना। गांव के कुछ लोग ऐसे भी हैं, कि जो कहते हैं, कि क्या पोखरनी कभी राजा साहब से आजाद हो पाएगा? आजादी का मतलब पंचायती चुनाव से है। कौन प्रधान होगा इसका एलान महल से हो जाता है। राजा साहब का गांव में इतना दबदबा हैं, कोई इनके इच्छा के विरुद्व वोट भी नहीं डाल सकता। तभी तो 1980 से आज तक प्रधानी या तो इनके पास रही या तो परिवार के किसी सदस्य या फिर इनके किसी खास के पास रही। ऐसा भी नहीं गांव में विकास न हुआ है। विकास के साथ भ्रष्टाचार भी हुआ। ऐसा गांव वालों का कहना और मानना है। यह भी सही है, कि भ्रष्टाचार से अधिक विकास हुआ। यह भी सवाल उठ रहा है, कि जब राजा साहब के पास ही प्रधानी 45 सालों से रही तो फिर ग्राम पंचायत माडल की श्रेणी में क्यों नहीं आया?

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