हरीश द्विवेदी के लिए फाइनल रिपोर्ट बना संजीवनी

हरीश द्विवेदी के लिए फाइनल रिपोर्ट बना संजीवनी

हरीश द्विवेदी के लिए फाइनल रिपोर्ट बना संजीवनी 

-पंकज दूबे बनाम हरीश द्विवेदी केस का निर्णय तब तक नहीं होगा जब तक पुलिस चार्जशीट दाखिल नहीं करेगी

-पुलिस अब इस लिए चार्जशीट दाखिल नहीं कर सकती, क्यों कि वह पहले ही चार बार फाइनल रिपोर्ट लगा चुकी

-जितनी बार फाइनल रिपोर्ट का विरोध होता, उतनी बार कोर्ट फिर से विवेचना करने का आदेश पारित करती, फिर पुलिस यह कहकर फाइनल रिपोर्ट लगा देती

-फाइनल रिपोर्ट लगाने का कारण पुलिस चोट मार से नहीं बल्कि एक्सीडेंट से हुआ बताती, जबकि मेडिकल रिपोर्ट में चोट का कारण मारने से

-कानून के जानकारों का कहना है, कि कोर्ट बिना चार्जशीट के कोई निर्णय नहीं ले सकती, पक्षकार चाहे तो इसकी जांच सीबीसीआईडी से कराने की अपील कोर्ट से कर सकती

बस्ती। कानून बनाने वाले ही अगर कानून का सम्मान नहीं करेंगे तो करेगा कौन? यह सवाल खासतौर से छह साल से चल रहे पंकज दूबे बनाम हरीश द्विवेदी के मामले को लेकर उठ रहा है। अखबार के कार्यालय में जाकर यह कहने वाले कि आप को किसने लिखने की इजाजत दी, कानून हम बनाते है। अखबार वालों को कानून का पाठ पढ़ाने वाले लगता है, कि खुद पाठ पढ़ना भूल गए। अगर भूले ना होते तो न्यायालय का सम्मान करते हुए हाजिर होते। बहरहाल, यह केस पूर्व सांसद के राजनीति, सामाजिक और नीजि के रास्ते का सबसे बड़ा रोड़ा और अपमान जनक माना जा रहा है। हालांकि समझौता करने/कराने का हर स्तर पर प्रयास हुआ, लेकिन चोट इतनी गहरी है, कि दूबेजी समझौता करने को किसी भी कीमत पर तैयार नहीं है। कहते हैं, कि भले ही चाहें इस लड़ाई में उनका भारी से भारी नुकसान हो जाए, लेकिन समझौता के रास्ते पर नहीं जाउंगा। हम्हें न्यायालय पर पूरा भरोसा है। भतीजा कहे जाने वाले पंकज दूबे दो बार लोकसभा का चुनाव अपने चाचा के खिलाफ लड़ चुके है। चौकाने वाली बात यह है, कि अंतिम बार यानि चौथी बार फाइनल रिपोर्ट लगाने वाले फुटेहिया चौकी के विवेचना अधिकारी से, जब पंकज ने पूछा कि आपने मेरा बयान नौरातन की समाप्ति के बाद दर्ज करने को कहा था, कब दर्ज करेगें, कहने लगे कि अवकाष पर हूं, आते ही दर्ज कर लूंगा, जब कि आईओ को यह अच्छी तरह मालूम हैं, वह फाइनल रिपोर्ट दाखिल कर चुके है। मीडिया में खबर आने के बाद भी आईओ वादी से झूठ बोल रहें। इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं, कि पुलिस का रुख किस ओर है, और वह इस मामले में पुलिस क्या चाहती है।

कानून के जानकारों का कहना है, कि पंकज दूबे बनाम हरीश द्विवेदी केस का निर्णय तब तक नहीं होगा जब तक पुलिस चार्जशीट दाखिल नहीं करेगी, क्यों कि बिना चार्जशीट के न्यायालय कोई निर्णय नहीं ले सकती और ना तो किसी को कसूरवार ठहरा कर सजा ही सकती है। सवाल उठ रहा है, भले ही चाहे वादी फाइनल रिपोर्ट का चाहें जितनी बार विरोध करे और कोर्ट चाहें जितनी बार एसओ नगर को पुनः विवेचना करने का आदेश दे, लेकिन जब तक पुलिस इस मामले में चार्जशीट दाखिल नहीं करती, कुछ होने वाला नहीं है। रही बात पुलिस के चार्जशीट दाखिल करने की तो वह इस लिए अब दाखिल नहीं कर सकती, क्यों कि वह पहले ही चार बार फाइनल रिपोर्ट लगा चुकी है। एक तरह से पुलिस के लिए फाइनल रिपोर्ट लगाना एक मजबूरी सी हो गई है। जाहिर सी बात है, कि इसका लाभ प्रतिवादी को ही मिलेगा। बार-बार कहा जा रहा है, कि इस मामले को ना तो कोई कोर्ट और ना ही कोई पुलिस कर सकती है, बल्कि समझौता ही केस को समाप्त करने के लिए एक मात्र विकल्प है। इसका निर्णय पंकज दूबे को ही करना होगा, क्यों कि अब तक जो इन्होंने लड़ाई कानूनी लड़ी, उसका एक फीसद भी इन्हें लाभ नहीं मिला, भले ही इनके वकील साहब यह कहते रहें कि सब्र करिए सजा होकर रहेगी। वैसे इस लड़ाई में वादी को बहुत कुछ खोना पड़ा। परिवार को डर के साए में ना जाने कितने दिनों तक रहना पड़ा। कहा जाता है, कि यह परिवार का हिम्मत और हौसला ही है, जो इतना सबकुछ खोने के बाद पीछे हटने को तैयार नहीं। समझौता ना होने के मामले में पूरी तरह पूर्व सांसद और उनकी टीम की नाकामी मानी जा रही है। पीएम और गृह मंत्री के प्रिय माने जाने वाले और देष भर में डंका बजाने वाले अगर अपने ही घर में डंका नहीं बजा पा रहे हैं, तो सोचने वाली बात है। हर नेता यह चाहता है, कि जब वह चुनाव का शपथ पत्र दाखिल करे, तो उसमें यह ना लिखा जाए कि उसके खिलाफ न्यायालय में कोई वाद लंबित है।  

कानून के जानकार यह भी कहते हैं, कि कोर्ट बिना चार्जषीट के कोई निर्णय नहीं ले सकती, पक्षकार चाहे तो इसकी जांच सीबीसीआईडी से कराने की अपील कोर्ट से कर सकते हैं। उधर पक्षकार का कहना है, कि वह इस मामले में नए सिरे से कानूनी राय ले रहे हैं। वैसे वह फाइनल रिपोर्ट का न्यायालय में विरोध दाखिल करने जा रहे है। कहते हैं, कि हमने इस मामले में सुप्रीम के मुख्य न्यायाधीश को भी पत्र लिखकर उनसे मदद मांगा, लेकिन कोई रिस्पांस नहीं मिला। वैसे भी जिले में पूर्व सांसद के षुभ चिंतकों की कमी है। इन्हें सबसे अधिक अपनों के विरोध का सामना करना पड़ रहा है। इसी विरोध के चलते यह तीसरी बार सांसद नहीं बन पाए। इनके राजनैतिक विरोधी इनका चारों तरफ से नुकसान होना देखना चाह रहें है। वादी को अपने मुकदमें की उतनी चिंता नहीं होगी, जितना इनके राजनैतिक विरोधी को है। इनकी हर गतिविधियों पर विरोधियों की नजर है। हालांकि विरोधियों के ना तो अच्छे दिन चल रहे हैं, और ना उनके मंषूबे ही पूरे हो रहें हैं।

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