आखिर डाक्टर्स क्यों नहीं सस्ती जेनरिक दवाएं लिखते?

आखिर डाक्टर्स क्यों नहीं सस्ती जेनरिक दवाएं लिखते?

आखिर डाक्टर्स क्यों नहीं सस्ती जेनरिक दवाएं लिखते?

-जब जेनरिक दवाओं की गुणवत्ता और प्रभावकारिता ब्रांडेड दवाओं के समान हैं, तो फिर क्यों डाक्टर्स जेनरिक दवाएं नहीं लिखते?

-जबकि जेनरिक दवाएं ब्रांडेड विकल्पों की तुलना में कम कीमत पर उपलब्ध हैं, तो क्यों डाक्टर्स मंहगी दवाएं लिखकर मरीजों पर आर्थिक बोझ बढ़ा रहें

-विशेषज्ञ और अनेक ईमानदार डाक्टर्स मानते हैं, कि जेनरिक दवाएं सबसे कम कीमत और प्रभावी उपचार वाला भी हैं, फिर भी यह जेनरिक दवाएं नहीं लिखते

-कमीशन के चक्कर में अधिकांश डाक्टर्स गरीब मरीजों को मरने के लिए छोड़ देते है, जो ब्रांडेड दवाएं पांच सौ रुपया पत्ता मिलती है, वहीं जेनरिक की वही दवाएं 40-45 रुपया पत्ता मिल जा रही

-अगर डाक्टर्स गरीब मरीजों को जेनरिक दवाएं लिखने लगे तो न जाने कितने गरीब मरीजों का घर और जेवर बिकने या गिरवी रखने से बच जाए

-अनेक कई ऐसे डाक्टर्स भी है, जो जेनरिक दवांए तो खरीद कर ले जाते हैं, लेकिन उसी दवा को मरीजों को ब्राडेड दवा बताकर मरीजों का खून चूस रहें

-जब जेनरिक दवांए ब्रांडेड दवाओं से 20-25 गुना अधिक सस्ती और कारगर भी है, और फारमूला भी एक जैसा है तो क्यों नहीं डाक्टर्स जेनरिक दवाओं को बढ़ावा देते

-एफडीए एवं अन्य नियमक एजेंसियां पुष्टि कर चुकी हैं, कि जेनरिक दवाएं ब्रांडेड दवाओं के समान हैं, और मानक को पूरा करता, कारगर और सस्ता होता

-दवा कंपनियों के दबाव में आकर सरकार इसे अनिवार्य नहीं कर रही है, जब कि एक अस्पताल के उदघाटन में मोदीजी इसे अनिवार्य बनाने की घोषणा कर चुके, स्वास्थ्य मंत्रालय भी घोषणा कर चुका, लेकिन सब हवाहवाई साबित हो रहा

-सरकार को इसे पोलियों की तरह लेकर अभियान चलाना चाहिए और घर-घर जेनरिक दवाओं को पहुंचाना चाहिए

-ग्रामीण अंचलों के कामगारों, एवं रोजमर्रा की जिंदगी में आर्थिक संकट से जूझ रहे लोगों को अगर कठिनाईयों से बचाना हैं तो सरकार को जेनरिक दवाओं  को अनिवार्य करना होगा

-दवा कंपनियों के दबाव का प्रभाव इतना है, कि सरकार ने अभी तक सरकारी अस्पतालों में जेनरिक दवाओं को अनिवार्य नहीं किया

-अब जरा अंदाजा लगाइए कि एग्रो सेफ कंपनी की डाईसेरिन नामक दवा एक पत्ता यानि दस टेबलेट की कीमत 272 रुपया है, और सेम नाम और सेम फारमूला के जेनरिक दवा की कीमत मात्र 49.50 रुपया, यानि ब्रांडेड के एक टेबलेट की कीमत 27.72 और जेनरिक की पांच रुपया

-इसी तरह सिपला कंपनी की रैबेप्राजोल सोडिएम की 10 गोली की कीमत 177 रुपया वहीं पर जेनरिक की सेम दवा की कीमत मात्र 18 रुपया यानि ब्रांडेड का एक टेबलेट 17 रुपये से अधिक हैं, वहीं पर जेनरिक मात्र दो रुपये से भी कम में एक टेबलेट

-अब जरा बीपी की दवा के रेट का कमाल देखिए, स्टामला बेटा नामक कंपनी के एमलोडाइफिन 10 टेबलेट की कीमत 266 रुपया, और जेनरिक में उसी दवा की कीमत मात्र सात रुपये में 10 टेबलेट यानि एक टेबलेट एक रुपया का भी नहीं पड़ा, वहीं ब्रांडेड का 66 रुपया एक टेबलेट

बस्ती। बार-बार सवाल उठ रहा है, कि आखिर डाक्टर्स क्यों नहीं सस्ती और असरकारक जेनरिक दवांए लिखते? क्यों ब्रांडेड की मंहगी दवाएं लिखते है? जबकि डाक्टर्स को अच्छी तरह मालूम हैं, कि जेनरिक और ब्रांडेड दवाओं की गुणवत्ता और फारमूला में कोई अंतर नहीं है, अंतर है, तो सिर्फ रेट में। तो फिर क्यों डाक्टर्स जेनरिक दवाएं नहीं लिखते? क्या डाक्टर्स का यह दायित्व और कर्त्तव्य नहीं कि वह अपने मरीजों का ख्याल रखे? जिससे मरीज पर आर्थिक बोझ न पड़े? जब विशेषज्ञ, सरकार और डाक्टर्स मानते हैं, कि जेनरिक दवाओं की गुणवत्ता और प्रभावकारिता ब्रांडेड दवाओं के समान हैं, तो फिर क्यों डाक्टर्स जेनरिक दवाएं नहीं लिखते? उदाहरण के रुप में हम आप को जेनरिक और ब्रांडेड दवाओं की कीमत के अंतर को बताते है। अब जरा अंदाजा लगाइए कि एग्रो सेफ कंपनी की डाईसेरिन नामक दवा एक पत्ता यानि दस टेबलेट की कीमत 272 रुपया है, और सेम नाम और सेम फारमूला के जेनरिक दवा की कीमत मात्र 49.50 रुपया, यानि ब्रांडेड के एक टेबलेट की कीमत 27.72 और जेनरिक की पांच रुपया। इसी तरह सिपला कंपनी की रैबेप्राजोल सोडिएम की 10 गोली की कीमत 177 रुपया वहीं पर जेनरिक की सेम दवा की कीमत मात्र 18 रुपया यानि ब्रांडेड का एक टेबलेट 17 रुपये से अधिक हैं, और जेनरिक का मात्र दो रुपये से भी कम। अब जरा बीपी की दवा के रेट का कमाल देखिए, स्टामला बेटा नामक कंपनी के एमलोडाइफिन 10 टेबलेट की कीमत 266 रुपया, और जेनरिक में उसी दवा की कीमत मात्र सात रुपये में 10 टेबलेट यानि एक टेबलेट एक रुपया का भी नहीं पड़ा, वहीं ब्रांडेड का 66 रुपया का एक टेबलेट पड़ा। क्या यह अंतर डाक्टर्स को नहीं दिखाई देता? चूंकि लगभग सभी नर्सिगं होम में खुद का मेडिकल स्टोर्स होता है, और ब्रांडेड की दवा में उन्हें अधिक लाभ होता है, इस लिए डाक्टर्स अपने लाभ के लिए अपने ही मरीजों का गला घोंट रहे हैं, उनका खून चूस रहे है। जाहिर सी बात हैं, कि जिस नामी डाक्टर्स को मेलकाम जैसी कंपनी की दवा लिखने के लिए सालाना एक करोड़ मिलता हो, वह क्यों जेनरिक दवा लिखेगा? पैसा कमाने के चक्कर में अनेक डाक्टर्स ने अपना ईमान और धर्म दोनों बेच दिया है। क्या यही है, डाक्टरी पेशा और क्या इसी को डाक्टर कहते हैं? डाक्टर्स को अच्छी तरह मालूम हैं, कि जेनरिक दवाएं ब्रांडेड विकल्पों की तुलना में कम कीमत पर उपलब्ध हैं, तो डाक्टर्स मंहगी दवाएं लिखकर मरीजों पर आर्थिक बोझ क्यों बढ़ा रहें है? विशेषज्ञ और अनेक ईमानदार डाक्टर्स मानते हैं, कि जेनरिक दवाएं सबसे कम कीमत और प्रभावी उपचार वाला भी हैं, फिर भी यह जेनरिक दवाएं नहीं लिखते। कमीशन के चक्कर में अधिकांश डाक्टर्स गरीब मरीजों को मरने के लिए छोड़ देते है, जो ब्रांडेड दवाएं पांच सौ रुपया पत्ता मिलती है, वहीं जेनरिक की वही दवाएं 40-45 रुपया पत्ता मिल जा रही है। अगर डाक्टर्स गरीब मरीजों को जेनरिक दवाएं लिखने लगे तो न जाने कितने गरीब मरीजों का घर और जेवर बिकने या गिरवी रखने से बच जाए। अनेक कई ऐसे डाक्टर्स भी है, जो जेनरिक दवांए तो खरीद कर ले जाते हैं, लेकिन उसी दवा को मरीजों को ब्राडेड दवा बताकर उनका खून चूस रहें है। जब जेनरिक दवांए ब्रांडेड दवाओं से 20-25 गुना अधिक सस्ती और कारगर है, और फारमूला भी एक जैसा है तो क्यों नहीं डाक्टर्स जेनरिक दवाओं को बढ़ावा देते? एफडीए एवं अन्य नियामक एजेंसियां पुष्टि कर चुकी हैं, कि जेनरिक दवाएं ब्रांडेड दवाओं के समान हैं, और मानक को पूरा करता, कारगर और सस्ता होता। दवा कंपनियों के दबाव में आकर सरकार इसे अनिवार्य नहीं कर रही है, जब कि एक अस्पताल के उदघाटन में मोदीजी इसे अनिवार्य बनाने की घोषणा कर चुके, स्वास्थ्य मंत्रालय भी घोषणा कर चुका, लेकिन सब हवा हवाई साबित हो रहा है। सरकार को इसे पोलियों की तरह लेकर अभियान चलाना चाहिए और घर-घर जेनरिक दवाओं को पहुंचाना चाहिए। ग्रामीण अंचलों के कामगारों, एवं रोजमर्रा की जिंदगी में आर्थिक संकट से जूझ रहे लोगों को अगर परेशानियों एवं कठिनाईयों से बचाना हैं तो सरकार को जेनरिक दवाओं  को अनिवार्य करना होगा। दवा कंपनियों के दबाव का प्रभाव इतना है, कि सरकार ने अभी तक सरकारी अस्पतालों में जेनरिक दवाओं को अनिवार्य नहीं किया।

कहा जाता है, कि जेनरिक दवाओं पर लोगों का भरोसा एक जटिल मुद्वा हैं, सरकार अभी तक लोगों को अच्छी तरह यह नहीं बता सकी कि जेनरिक और ब्रांडेड दवाओं के रेट कितना अंतार हैं, जब कि गुणवत्ता में कोई अंतर नहीं। सरकार को लोगों के भीतर जागरुकता पैदा करना होगा, उन्हें बताना होगा कि सरकार ने गरीबों को अनेकों कठिनाईयों से बचाने के लिए जेनरिक दवाओं को लांच किया। कुछ लोग प्रभावी और सुरक्षित मानते तो हैं, लेकिन डाक्टर्स और मेडिकल स्टोर्स के चक्कर में पड़कर बर्बाद हो जा रहे है। यह भावना उन्हीं मरीजों के भीतर व्याप्त हैं, जिन्होंने कभी जेनरिक दवाओं का इस्तेमाल नहीं किया, दावा है, कि जिस दिन जनता जेनरिक दवाओं का इस्तेमाल करने लगेगी उस दिन न जाने कितने दवा कंपनियों को अपना कारोबार समेटना पड़ेगा। इसमें जब तक डाक्टर्स और मेडिकल स्टोर्स का सहयोग जनता को नहीं मिलेगा कुछ नहीं होगा, और दोनों कभी नहीं चाहेगें कि उनका मुनाफा और कारोबार कम हो। मीडिया भी आप लोगों से अपील कर रही है, कि एक बार अवष्य जेनरिक दवा खरीद और इस्तेमाल करिए। इतनी बचत हो जाएगी, जिसके बारे में कभी आपने सोचा भी नहीं होगा। बस आप लोगों को डाक्टर्स और मेडिकल स्टोर्स वालों से सावधान रहने की आवष्यकता है। यकीन मानिए हरी मिर्च के दाम में आप को वही दवा मिलेगी, जिसे आप देशी घी के भाव में खरीदते है। इतना सस्ता मिलेगा कि आप एक पत्ता के स्थान पर दो तीन पत्ता लेना चाहेगे।

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